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अध्याय ५ भागवत व्यक्तित्व
समन्वयात्मक योग ज्ञान और भक्ति को केवल अपने अन्दर सम्मिलित ही नहीं करता, बल्कि इन्हें एक कर देता है, अतएव इसमें तुरन्त एक प्रश्न पैदा होता है, भागवत व्यक्तित्व का कठिन और कष्टप्रद प्रश्न । आधुनिक विचार की सारी प्रवृत्ति व्यक्तित्व का महत्त्व कम करने की रही है; इसने सत्ता के गहन तथ्यों के मूल में केवल एक महान् निर्वैयक्तिक शक्ति, धूमिल सम्भूति के ही दर्शन किये हैं । वह महान् शक्ति भी निर्वैयक्तिक शक्तियों तथा निर्वैयक्तिक नियमों के द्वारा अपने को कार्यान्वित करती है, जब कि व्यक्तित्व अपनेको इस निर्वैयक्तिक गति के तथ्य की सतह पर परवर्ती, गौण, आंशिक तथा क्षणिक दृग्विषय के रूप में ही प्रस्तुत करता है । मान लिया कि इस शक्ति में चेतना है, फिर भी प्रतीत यह होता है कि वह चेतना निर्वैयक्तिक तथा निर्गुण है, अपने सार में अमूर्त्त्त गुणों या सामर्थ्यों के सिवा और सब चीजों से शून्य है; क्योंकि अन्य प्रत्येक वस्तु केवल परिणाम एवं तुच्छ दृग्विषय है । प्राचीन भारतीय विचार सीढ़ी के बिलकुल दूसरे सिरे से चलकर अपनी अधिकतर दिशाओं में इसी व्याप्ति पर पहुंचा । इसने निर्वैयक्तिक सत्ता को मूल तथा सनातन सत्य कल्पित किया; इसके अनुसार व्यक्तित्व तो केवल भ्रम है या, अधिक-से-अधिक, मन का एक दृग्विषय ।
इसके विपरीत, यदि भगवान् के व्यक्तित्व को वास्तविक सत्ता न माना जा सके--भ्रम का मूलाधार नहीं, बल्कि वास्तविक सद्वस्तु-तो भक्तिमार्ग सम्भव नहीं । प्रेमी और प्रियतम के बिना प्रेम सम्भव ही नहीं । यदि हमारा व्यक्तित्व एक भ्रम है और जिस परम व्यक्तित्व की ओर हमारी पूजा ऊपर उठती है वह भी यदि इस भ्रम का एक प्रधान पक्षमात्र है, और यदि हम ऐसा मानते हों तो, प्रेम तथा पूजा का तुरन्त्त अन्त हो जायेगा, अथवा ये हृदय के अयुक्तियुक्त राग में ही जीवित रह सकेंगे, क्योंकि हृदय जीवन के प्रबल स्पन्दनों के द्वारा तर्कबुद्धि के स्पष्ट तथा शुष्क सत्यों का निषेध करता है । हमारे मनों की छाया या चमकीले विश्व-प्रपञ्च की, जो सत्यदृष्टि के सामने लुप्त हो जाता है, प्रेमपूर्वक पूजा करना सम्भव तो है, किन्तु ऐसी स्वगठित आत्म-प्रवञ्चना पर मुक्तिमार्ग की नींव नहीं रखी जा सकती । अवश्य ही भक्त बुद्धि के इन संशयों को अपने मार्ग में नहीं आने देता; उसके अपने हृदय में स्कुरणाएं उठती हैं और वही उसके लिये पर्याप्त होती हैं । परन्तु पूर्णयोग के साधक को अन्ततक छाया के आनन्द पर नहीं अड़े रहना है, बल्कि सनातन तथा चरम सत्य का ज्ञान प्राप्त करना हैं । यदि निर्वैयक्तिक ही एकमात्र स्थायी सत्य हो तो दृढ़ समन्वय सम्भव नहीं । अधिक-से-अधिक वह ५८६ भागवत व्यक्तित्व को एक प्रतीक, शक्तिशाली तथा फलजनक कल्पना मान सकता है । किन्तु अन्त में उसे इसका अतिक्रमण करके केवल चरम ज्ञान का अनुसरण करने के लिये भक्ति को तिलांजलि देनी होगी । उसे निराकार सद्वस्तु पर पहुंचने के लिये सत्ता को इसके सब प्रतीकों, मूल्यों और निहित तत्त्वों से रिक्त करना होगा ।
परन्तु हम कह चुके हैं कि वैयक्तिकता और निर्वैयक्तिकता, हमारे मनों की समझ के अनुसार, भगवान् के दो पक्षमात्र हैं और दोनों उसकी सत्ता में निहित हैं; वे एक ही वस्तु हैं जिसे हम दो विरोधी दिशाओं से देखते हैं तथा जिसमें हम दो द्वारों से प्रवेश करते हैं । यह हमें सुस्पष्ट रूप में देख लेना चाहिये, ताकि जब हम भक्ति की उमंग और प्रेम की स्फुरण का अनुसरण करें तब यदि बुद्धि नाना सन्देह उठाकर हमें सताना चाहे या दिव्य मिलन के हर्ष के भीतर हमारा पीछा करे तो हम अपनेको उन सन्देहों से मुक्त कर सकें । निश्चय ही वे सन्देह उस हर्ष से परे झड़ जाते हैं, किन्तु यदि हम दार्शनिक मन के बोझ के नीचे अत्यधिक दबे हुए हैं तो वे लगभग उस हर्ष की देहरीतक हमारे साथ चले आ सकते हैं । इसलिये यह अच्छा होगा कि हम अपनेको इनसे यथाशीघ्र खाली कर लें यह जानकर कि बुद्धि या तर्कवादी दार्शनिक मन सत्य के पास पहुंचने की अपनी विशेष विधि में सीमित है और बौद्धिक मार्ग से आरम्भ करनेवाला आध्यात्मिक अनुभव भी सीमाबद्ध है; इस प्रकार हम देखेंगे कि निश्चय ही यह उच्चतम तथा विशालतम आध्यात्मिक अनुभव की पूर्ण समग्रता नहीं है । आध्यात्मिक सहजज्ञान सदैव विवेकबुद्धि से अधिक प्रकाशपूर्ण मार्गदर्शक है, आध्यात्मिक सहजज्ञान हमें बुद्धि द्वारा ही नहीं, अपितु हमारी शेष सारी सत्ता के द्वारा भी, हृदय और प्राण के द्वारा भी, मार्ग दिखाता है । अतः सर्वांगीण ज्ञान वह होगा जो इन सबको दृष्टि में रखकर इनके विभिन्न सत्यों को एकीभूत करे । स्वयं बुद्धि को भी अधिक गहरी तृप्ति होगी यदि वह अपने स्वीकृत तथ्योंतक ही सीमित न रहकर हृदय तथा प्राण के सत्य को भी स्वीकार करे और उन्हें उनका चरम आध्यात्मिक मूल्य प्रदान करे ।
दार्शनिक बुद्धि का स्वभाव है भावों में विचरण करना, उन्हें एक प्रकार की निजी अमूर्त्त वास्तविकता प्रदान करना । वह वास्तविकता उनके उन सब गोचर रूपों से पृथक् होती है जो हमारे जीवन तथा व्यक्तिगत चेतना पर प्रभाव डालते हैं । इसकी प्रवृत्ति इन रूपों को इनके रिक्ततम तथा अत्यन्त सर्वसामान्य लक्षणों में परिणत करने की होती है और सम्भव हो तो इन्हें भी सूक्ष्म कर किसी अन्तिम अमूर्त्त भाव का रूप देने की । शुद्ध बौद्धिक मार्ग जीवन से उलटी तरफ जाता है । वस्तुओं पर विचार करते हुए बुद्धि हमारे व्यक्तित्व पर उनके प्रभावों से पीछे हटकर उनके मूल में स्थित किसी एक सर्वसामान्य तथा निर्वैयक्तिक सत्य पर पहुंचने का यत्न करती है; उस प्रकार के सत्य को यह सत्ता का अनन्य वास्तविक सत्य या कम-से-कम सद्वस्तु की एकमात्र उत्कृष्ट तथा स्थायी शक्ति समझने की ओर प्रवृत्त होती है । ५८७ अपनी पराकाष्ठा में यह, स्वभाववश तथा अनिवार्य रूप से, चरम निर्वैयक्तिकता और चरम अमूर्त्त भाव पर ही पहुंचेगी । प्राचीन दर्शनों का परिपाक इसीमें दुआ । उन्होंने प्रत्येक पदार्थ को तीन अमूर्त भावों में परिणत कर दिया, सत्, चित्, आनन्द; इन तीनों में सें दो से, जो पहले तथा अत्यन्त अमूर्त्त भाव पर अवलम्बित प्रतीत होते थे, पिण्ड छुड़ाकर वे सभीको उस शुद्ध निराकार सत् में अन्तर्भूत करने में प्रवृत्त हुए जिससे अन्य प्रत्येक वस्तु सब रूप, सब मूल्य बाहर निकले हैं, सिवा सत्ता के एकमेव अनन्त कालातीत तत्त्व के । परन्तु बुद्धि को अभी एक और सम्भव कदम उठाना था और वह उसने बौद्ध-दर्शन में उठाया । इसने देखा कि सत्ता का यह अन्तिम तथ्य भी एक रूपमात्र है; इसने उसका भी विश्लेषण किया और अनन्त शून्य पर जा पहुंची जो या तो कोई शुद्ध रिक्तता हो सकता था या फिर कोई नित्य शब्दातीत वस्तु ।
जैसा कि हम जानते हैं, हृदय और प्राण का नियम इससे ठीक उलटा है । वे अमूर्त्त भावों से नहीं जी सकते; उन्हें केवल ऐसी चीजों से तृप्ति मिल सकती है जो ठोस हैं या इन्द्रियग्राह्य हो सकती हैं; चाहे भौतिक तौर पर और चाहे मानसिक या आध्यात्मिक तौर पर उनका लक्ष्य कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसकी वे बौद्धिक पृथक्करण के द्वारा विवेचना तथा प्राप्ति करना चाहते हैं; वे तो चाहते हैं अपने लक्ष्य की जीवन्त अभिव्यक्ति, उसपर सचेतन स्वत्व और उसका सचेतन आनन्द । जिसे वे प्रत्युतर देते हैं वह अगोचर मन या निर्वैयक्तिक सत्ता की तृप्ति नहीं, बल्कि हमारे अन्दर के पुरुष, चेतन व्यक्ति का हर्ष और कर्म ही है; सान्त या अनन्त, वह एक ऐसा व्यक्ति है जिसके लिये अपनी सत्ता के आनन्द और बल सत्य हैं । अतएव, जब हृदय और प्राण सर्वोच्च तथा अनन्त की ओर मुड़ते हैं तो किसी वस्तुशून्य सत् या असत् सत् अथवा निर्वाण, पर नहीं पहुंचते, बल्कि सत् पुरुष पर, केवल एक चेतना पर नहीं, बल्कि चैतन्य पुरुष पर, केवल ''है'' के शुद्ध निर्वैयक्तिक आनन्द पर नही, वरन् आनन्द के अनन्त ''मैं हूं" पर, आनन्दमय पुरुष पर; न ही वे उसकी चेतना और आनन्द को निराकार सत् में निमज्जित तथा विलीन कर सकते हैं, बल्कि वे तो तीनों की एक में उपलब्धि पर आग्रह करते हैं, क्योंकि सत्ता का आनन्द उनकी सर्वोच्च शक्ति है और चेतना के बिना आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती । भारत के अत्यन्त प्रगाढ़ प्रेम-धर्म के परम प्रतीक श्रीकृष्ण, अर्थात् आनन्दस्वरूप तथा सर्वसुन्दर पुरुष का यही तात्पर्य है ।
बुद्धि भी इस प्रवृत्ति का अनुसरण कर सकती है, पर तब यह शुद्ध नहीं रह जाती, यह अपनी कल्पना-शक्ति को अपनी सहायता के लिये आमंत्रित करती है, यह मूर्त्तिकार बन जाती है, प्रतीकों तथा मूल्यों कीस्रष्ट्री, आध्यात्मिक कलाकर्त्री तथा कवयित्री । अतएव, कठोरतम बौद्धिक दर्शन सगुण को, भागवत व्यक्ति को, परम वैश्व प्रतीकमात्र मानता है; यह कहता है, इससे परे सद्वस्तु की ओर जाओ ५८८ और तुम अन्त में निर्गुण, शुद्ध निर्वैयक्तिक पर पहुंचोगे । इसका प्रतिपक्षी दर्शन सगुण की उच्चता स्थापित करता है; सम्भवतः यह कहेगा कि जो निर्गुण है वह सगुण की आध्यात्मिक प्रकृति का द्रव्य या उपादानमात्र है जिसमें से वह अपनी सत्ता, चेतना और आनन्द की शक्तियों को, अपना स्वरूप प्रकाश करनेवाली सभी चीजों को व्यक्त करता है । निर्गुण तो प्रत्यक्ष अभाव-पक्ष है जिसमें से वह अपने व्यक्तित्वरूपी नित्य भाव-पक्ष के कालगत नाना रूपों को बाहर निकालता है । स्पष्ट ही यहां दो सहज प्रेरणाएं काम कर रही हैं, अथवा, यदि हम बुद्धि के लिये इस शब्द का प्रयोग करने से हिचकिचाए तो यूं कहना चाहिये कि हमारी सत्ता की दो स्वाभाविक शक्तियां हैं जो एक ही सद्वस्तु के साथ अपने-अपने ढंग से बरताव कर रही हैं ।
बुद्धि के विचार, इसके विवेक, तथा हृदय और प्राण की अभीप्साएं इनकी निकट उपलब्धियां--दोनों के मूल में सत्य निहित हैं जिन पर पहुंचने के ये साधन हैं । आध्यात्मिक अनुभव दोनों को सत्य सिद्ध करता है दोनों उसकी दिव्य चरम सत्ता पर पहुंचते हैं जिसे कि वे खोज रहे हैं । परन्तु फिर भी इनमेंसे प्रत्येक, यदि उसमें हमारी ऐकान्तिक आसक्ति हो तो, अपने सहज गुण तथा अपने विशेष साधन की सीमाओं के द्वारा कुण्ठित होता चला जाता है । अपने सांसारिक जीवन में हम यही बात देखते हैं, यहां यदि हम एकमात्र हृदय और प्राण के पीछे चलते हैं तो ये हमें किसी उज्जल परिणाम पर नहीं पहुंचाते, जब कि ऐकान्तिक बौद्धिकता या तो दूरस्थ, अगोचर तथा अशक्त रहती है या वन्ध्य आलोचक या शुष्क यन्त्रवित् । इनका पर्याप्त सामञ्जस्य तथा ठीक समन्वय हमारे मनोविज्ञान और हमारे व्यवहार की एक महान् समस्या है ।
समन्वय करनेवाली शक्ति परे, अन्तर्ज्ञान में निहित है । परन्तु एक अन्तर्ज्ञान तो वह है जो बुद्धि की सेवा करता है ' और एक वह जो हृदय तथा प्राण की सेवा करता है । यदि हम इनमें से किसी एक का ही अनन्य भाव से अनुसरण करें तो हम पहले की अपेक्षा अधिक दूर नहीं पहुंचेंगे; केवल इतना ही होगा कि जो चीजें अन्य अल्पदृष्टि शक्तियों का लक्ष्य हैं वे हमारे लिये पृथक्-पृथक्, किन्तु अधिक अन्तरङ्ग रूप में, वास्तविक हो जायेंगी । किन्तु यह तथ्य कि यह हमारी सत्ता के सभी भागों की समान रूप से सहायता कर सकता है, -क्योंकि शरीर के भी अपने अन्तर्ज्ञान होते हैं, --बतलाता है कि अन्तर्ज्ञान एकांगी नहीं, बल्कि सर्वांगीण सत्यान्वेषी है । हमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता के अन्तर्ज्ञान के सामने अपनी जिज्ञासा रखनी है, न कि केवल सत्ता के प्रत्येक भाग के सामने पृथक्-पृथक्, न ही इनकी उपलब्धियों के कुल जोड़ के सामने, बल्कि इन सब निम्नतर यंत्रों से परे, यहांतक कि इनके प्रथम आध्यात्मिक प्रतिरूपों से भी परे । इसके लिये हमें अन्तर्ज्ञान के निज गृह में आरोहण करना होगा जो अनन्त तथा असीम सत्य का निज गृह है, ५८९ 'ऋतस्थ स्वे दमे', जहां सत्तामात्र अपनी एकता उपलब्ध कर लेती है । यही आशय था प्राचीन वेद का जब कि उसने घोषणा की थी, ''सत्य से ढका दुआ एक ध्रुव सत्य है (सनातन सत्य जो इस दूसरे सत्य से छुपा हुआ है जिसकी हमें यहां ये निम्नतर स्कुरणाएं होती हैं); वहां प्रकाश की दशशत किरणें एक साथ स्थित हैं; वह है एक ।'' 'ऋतेन ऋतम् अपिहितं... दश शता सह तस्थु:, तद् एकम् ।'
आध्यात्मिक अन्तर्ज्ञान सदा सत्य को ही पकड़ता है; यह आध्यात्मिक उपलब्धि का ज्योति-दूत है या इसे उद्भासित करनेवाला प्रकाश; यह उसे प्रत्यक्ष देखता है जिसे हमारी सत्ता की अन्य शक्तियां खोजने का प्रयास कर रहीं हैं; यह बुद्धि के अमूर्त्त प्रतिरूपों तथा हृदय और प्राण के दृश्य प्रतिरूपों के ध्रुव सत्य पर पहुंचता है, ऐसे सत्य पर जो स्वयं न तो दूरत: अमूर्त्त्त है न हीं बाह्यत: मूर्त्त, बल्कि इनसे भिन्न कोई ऐसी चीज है जिसके लिये ये केवल हमारे प्रति इसकी मानसिक अभिव्यक्ति के दो पक्षमात्र हैं । जब हमारी अखण्ड सत्ता के अंग आपस में पहले की तरह विवाद नहीं करते, बल्कि ऊपर से प्रकाश पाते हैं तब इसका अन्तर्ज्ञान जो कुछ देखता है वह यही है कि हमारी सम्पूर्ण सत्ता का लक्ष्य एक ही सद्वस्तु है । निर्गुण एक सत्य है, सगुण भी एक सत्य है । वे एक ही सत्य हैं जो हमारी मानसिक क्रिया की दो दिशाओं से देखा गया है । उनमेंसे कोई भी अकेला सद्वस्तु का पूर्ण विवरण नहीं देता । तो भी प्रत्येक से हम उसके पास पहुंच सकते हैं ।
एक दिशा से देखने पर ऐसा लगेगा कि कोई निर्वैयक्तिक विचार कार्य में तत्पर है और उसने अपने काम की सुविधा के लिये विचारक की कल्पना को जन्म दिया है, कोई निर्वैयक्तिक शक्ति कार्यरत है और वह कर्ता की कल्पना को जन्म देती है, कोई निर्वैयक्तिक सत्ता क्रिया में प्रवृत्त है, और वह एक ऐसी वैयक्तिक सत्ता की कल्पना को प्रयोग में लाती है जो चेतन व्यक्तित्व तथा वैयक्तिक आनन्द को धारण करती है । दूसरी दिशा से देखने पर, यह विचारक ही है जो अपने-आपको विचार में प्रकट करता है, जिसके बिना विचार का अस्तित्व सम्भव ही न होता और विचारसम्बन्धी हमारी सामान्य कल्पना केवल विचारक के स्वभाव की शक्ति को संकेतित करती है; ईश्वर अपनेको संकल्प, बल तथा सामर्थ्य के द्वारा व्यक्त करता है, सत् अपनी सत्ता, चेतना तथा आनन्द के सर्वांगीण तथा आंशिक, प्रत्यक्ष, विलोम तथा प्रतिलोम--सभी रूपों के द्वारा अपनेको विस्तारित करता है, इन चीजों के विषय में हमारा सामान्य अमूर्त्त विचार उसकी सत्ता की प्रकृति की त्रिविध शक्ति का बौद्धिक प्रतिरूपमात्र है । समस्त निर्वैयक्तिकता क्रमश: कल्पना का रूप धरती दिखायी देती है और सत्ता अपने क्षण- क्षण में तथा कण-कण में एक और फिर भी असंख्यरूप व्यक्तित्व, अनन्त देवाधिदेव, आत्म-चेतन तथा आत्म-प्रकाशक पुरुष के जीवन, चैतन्य, बल, आनन्द के सिवा कुछ नहीं प्रतीत होती । दोनों दृष्टियां ठीक हैं, इसके सिवा कि कल्पना के विचार को, जो हमारी अपनी बौद्धिक प्रक्रियाओं से ५९० उधार लिया गया है, बाहर निकालना और प्रत्येक को उसका उपयुक्त बल देना आवश्यक है । पूर्णयोग के जिज्ञासु को इस प्रकाश में देखना होगा कि वह दोनों दिशाओं में उसी एक और अभिन्न सद्वस्तु पर पहुंच सकता है, बारी-बारी से या एक साथ, मानों वह दो सम्बद्ध पहियों पर सवारी कर रहा हो जो पहिये समानान्तर पटरियोंपर घूम रहे हैं, पर वे समानान्तर पटरियां बौद्धिक तर्क को नीचा दिखाकर तथा एकता के अपने भीतरी सत्य के अनुसार अनन्तता में पहुंचकर अवश्य मिल जाती हैं ।
भागवत व्यक्तित्व को हमें इसी दृष्टिकोण से देखना है । जब हम व्यक्तित्व की चर्चा करते हैं तो पहले-पहल इससे हमारा मतलब किसी सीमित, बाह्य, भेदकारक वस्तु से होता है, और वैयक्तिक ईश्वर के विषय में हमारा विचार भी उसी अपूर्ण स्वरूप को धारण करता है । प्रारम्भ में हमारा व्यक्तित्व हमारे लिये एक पृथक् प्राणी, सीमित मन, शरीर तथा स्वभाव होता है जिसे हम यूं समझते हैं कि यह हमारा निज स्वरूप है, यह एक निश्चित परिमाणवाला होता है; चाहे असल में यह सदा बदल रहा है, तो भी इसमें स्थिरता का पर्याप्त अंश होता है जिससे हम निश्चित-परिमाणता के इस विचार का एक प्रकार का क्रियात्मक समर्थन कर सकते हैं । ईश्वर के विषय में हम कल्पना करते हैं कि वह एक ऐसा ही व्यक्ति है, हां उसके शरीर नहीं है, वह अन्य सबसे भिन्न एक पृथक् व्यक्ति है जिसका मन और स्वभाव कुछ विशेष गुणों से मर्यादित है । पहले-पहल हमारे असंस्कृत विचारों में यह देवता अत्यन्त अस्थिर, चच्चल और तरंगी होता है, हमारे मानवीय स्वभाव का एक बड़ा संस्करण । परन्तु बाद में हम व्यक्तित्व के दिव्य स्वरूप को सर्वथा निश्चित मर्यादा की वस्तु समझते हैं और इसमें हम केवल उन्हीं गुणों को आरोपित करते हैं जिन्हें हम दिव्य एवं आदर्श मानते हैं, जब कि और सभीको हम बहिष्कृत कर देते हैं । यह मर्यादा हमें बाध्य करती है कि हम शेष सब गुणों की व्याख्या करने के लिये उन्हें शैतान पर आरोपित कर दें, या जिसे हम बुरा मानते हैं उस सबको पैदा करने की मौलिक सामर्थ्य मनुष्य में स्वीकार करें, या फिर, जब हम देखें कि इससे पूरी तरह काम नहीं चलेगा तो एक ऐसी शक्ति खड़ी कर दें जिसे हम प्रकृति कहते हैं और उसपर उस समस्त निम्न गुण तथा कार्य-कलाप को आरोपित कर दें जिसके लिये हम भगवान् को उत्तरदायी नहीं बनाना चाहते । इससे ऊंचे शिखर पर ईश्वर में मन और स्वभाव का आरोप कम मानवीय हो जाता है और हम उसे अनन्त आत्मा, किन्तु अभी भी एक पृथक् व्यक्ति मानते हैं, एक ऐसी आत्मा जिसमें उसके विशेष धर्म-रूप कुछ निश्चित दिव्य गुण हैं । भागवत व्यक्तित्व या सगुण-ईश्वरसम्बन्धी विचार इसी प्रकार कल्पित किये जाते हैं और ये नाना धर्मों में इतने विभित्र प्रकार के होते हैं ।
यह सब प्रथम दृष्टि में आदिम मानवगुणारोपवाद प्रतीत हों सकता है जिसके ५९१ अन्त में ईश्वर-विषयक एक बौद्धिक विचार जन्म लेता है । जगत् जैसा हमें दीखता है, उसकी यथार्थताओं से वह विचार अतीव भिन्न है । इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि दार्शनिक तथा सन्देहशील मन को इस सबका बौद्धिक तौर पर उन्मूलन करने में कुछ भी कठिनाई न हुई हों, चाहे वह उन्मुलन सगुण ईश्वर के निषेध और निर्गुण शक्ति या सम्भूति की स्थापना की दिशा में हो या निर्गुण सत् की या सत्ता के अनिर्वचनीय निषेध की दिशा में, जब कि शेष सबको माया के प्रतीक या कालचेतना के नामरूपात्मक सत्यमात्र समझा जाता है । परन्तु ये एकेश्वरवाद के व्यक्तित्वारोपणमात्र हैं । अनेकेश्वरवादी धर्म विश्व-जीवन के प्रति अपने प्रत्युत्तर में शायद इससे कम ऊंचे, पर अधिक विशाल तथा अधिक संवेदनशील रहे हैं । उन्होंने अनुभव किया है कि संसार की सभी वस्तुओं का मूल उद्गम दिव्य है; अतएव उन्होंनें अनेक दिव्य व्यक्तित्वों (देवताओं) की सत्ता की कल्पना की जिनके पीछे उन्होंने अनिर्देश्य भगवान् का धुंधला आभास पाया । सगुण देवों के साथ इस भगवान् के सम्बन्धों की उन्हें कोई सुस्पष्ट धारणा नहीं थी । अपने अधिक प्रकट आकारों में ये देवता असंस्कृत तौर पर मानवीय थे; पर जहां आध्यात्मिक वस्तुओं का आन्तरिक अर्थ अधिक स्पष्ट दुआ, नाना देवों ने एकमेव भगवान् के व्यक्तित्वों का रूप धारण कर लिया, --प्राचीन वेद का घोषित दृष्टिकोण यही है । यह भगवान् एक परम पुरुष हो सकता है जो अपनेको अनेक दिव्य व्यक्तित्वों में प्रकट करता है या यह एक निर्गुण सत्ता हो सकता है जो मानव मन को इन रूपों में दृष्टिगोचर होती है; अथवा इन दोनों विचारों में समन्वय का कोई बौद्धिक प्रयत्न किये बिना इन्हें एक साथ माना जा सकता है, क्योंकि आध्यात्मिक अनुभव को दोनों ही सत्य जान पड़ते थे । यदि हम बुद्धि के विवेक द्वारा दिव्य-व्यक्तित्वसम्बन्धी इन विचारों की परीक्षा करें तो अपनी रुचि के अनुसार हम इन्हें यह रूप देने में प्रवत्त होंगे कि ये कल्पना के आविष्कार या मनोवैज्ञानिक प्रतीक हैं, कम-से-कम ये किसी ऐसी चीज के प्रति हमारे संवेदनशील व्यक्तित्व का प्रत्युत्तर हैं जो व्यक्ति-रूप बिलकुल नहीं हैं, बल्कि शुद्ध निर्गुण है । हम कह सकते हैं कि वह (तत्) वास्तव में हमारी मानवता तथा हमारे व्यक्तित्व के ठीक विपरीत है और इसलिये उसके साथ सब प्रकार के सम्बन्ध जोड़ने के लियै हमें इन मानवी कल्पनाओं तथा इन वैयक्तिक प्रतीकों की स्थापना के लिये बाध्य होना पड़ता है जिससे कि वह हमारे अधिक समीपवर्ती हो जाये । परन्तु हमें आध्यात्मिक अनुभव के द्वारा निर्णय करना होगा, और समग्र आध्यात्मिक अनुभव में हम पायेंगे कि ये चीजें कल्पनाएं और प्रतीक नहीं, बल्कि अपने सार में दिव्य सत्ता के सत्य हैं, चाहे हमारे द्वारा रचित उनके प्रतिरूप कैसे भी अपूर्ण क्यों न हों । यहांतक कि अपने व्यक्तित्व के विषय में हमारा प्रथम विचार भी नितान्त अशुद्ध नहीं, बल्कि अनेक मानसिक भूलों से घिरा हुआ अधकचरा तथा उथला विचार है । महत्तर आत्मज्ञान से हमें पता चलता है ५९२ कि, प्रारम्भ में हम जैसे प्रतीत होते हैं उसके विपरीत, हम मूलतः रूप, बलों, गुणों, धर्मो की एक ऐसी विशेष रचना नहीं हैं जिसमें एक चेतन अहं है जो अपनेको इनसे एकाकार कर लेता है । यह तो हमारी सक्रिय चेतना के तलपर हमारी आंशिक सत्ता का अस्थायी तथ्यमात्र है, पर है यह एक तथ्य ही । अन्दर हम देखते हैं कि एक अनन्त सत्ता है जिसमें सब गुण, अनन्त गुण, बीजरूप से निहित हैं । वे गुण असंख्य सम्भव रूपों में मिलाये जा सकते हैं, प्रत्येक मिश्रण हमारी सत्ता का एक प्राकटय होता है । यह सर्वविध व्यक्तित्व परम पुरुष की, अर्थात् अपनी अभिव्यक्ति से सचेतन पुरुष की आत्म-अभिव्यक्ति है ।
परन्तु हम यह भी देखते हैं कि यह पुरुष अनन्त गुणों से गठित भी नहीं प्रतीत होता, वरन् उसकी इस अवस्था का सत्य स्वरूप गहन है । इस अवस्था में वह अनन्त गुण से पीछे हटकर अनिर्देश्य चेतन सत्ता का रूप धारण करता प्रतीत होता है । यहांतक लगता है कि वह चेतना को भी पीछे हटा लेता है और तब केवल कालातीत शुद्ध सत्ता ही शेष रह जाती है । फिर, एक विशेष शिखर पर ऐसा दीखता है कि हमारी सत्ता की यह शुद्ध आत्मा भी अपनी वास्तविकता का निषेध कर रही है, या यह एक ऐसे अनात्म अनाधार१ अज्ञेय का प्रस्तारमात्र है जिसे हम अनाम 'कुछ' या शून्य कल्पित कर सकते हैं । जब हम एकमात्र इसीपर दृष्टि गड़ाकर वह सब कुछ भूल जाते हैं जो इसने अपने अन्दर पीछे की ओर हटा लिया है तभी हम शुद्ध निर्गुणता या रिक्त शून्य को सर्वोच्च सत्य कहते हैं । परन्तु अधिक सर्वांगीण दृष्टि हमें बताती है कि जिसने अपने को इस प्रकार ऊपर अव्यक्त कूटस्थ में हटा लिया है वह है परम पुरुष तथा व्यक्तित्व और वह सब जो इसने व्यक्त किया था । यदि हम अपने हृदय तथा तार्किक मन को सर्वोच्च की ओर उठा ले जायें तो हमें पता लगेगा कि इसे हम चरम पुरुष तथा चरम निर्गुण सत्ता दोनों के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु यह सब आत्मज्ञान विश्वमय भगवान् के सजातीय सत्य का हमारे भीतर प्रतिरूपमात्र है । वहां भी हम दिव्य व्यक्तित्व के अनेक रूपों में उसका साक्षात् करते हैं; गुण की रचनाओं में जो उसे उसकी प्रकृति में हमारे सामने नाना प्रकार से प्रकट करती हैं; अनन्त गुण में; दिव्य व्यक्ति में जो अपने को अनन्त गुण द्वारा प्रकट करता है; चरम निर्वैयक्तिकता, चरम सत्ता या चरम अ-सत्ता में जो सदैव इस दिव्य व्यक्ति, इस चिन्मय पुरुष की अव्यक्त केवलता है । यह पुरुष हमारे द्वारा तथा विश्व के द्वारा अपने-आपको प्रकट करता है ।
इस वैश्व स्तर पर भी हम निरन्तर इन दोनों पक्षों में भगवान् के पास पहुंच रहे हैं । हम यों विचार एवं अनुभव कर सकते तथा कह सकते हैं कि ईश्वर सत्य, न्याय, पवित्रता, बल, प्रेम, आनन्द, सौन्दर्य हैं; हम उसे विश्व-शक्ति या विश्व-चेतना के रूप में भी देख सकते हैं । परन्तु यह तो केवल अनुभव का अमूर्त्त ढंग है ।
१ अनात्म्यम् अनिलयनम्-तैत्तरीय उपनिषद् ५९३ जैसे हम स्वयं कुछ एक गुण या शक्तियां या मनोवैज्ञानिक राशिमात्र नहीं हैं, बल्कि एक पुरुष या व्यक्ति हैं जो अपनी प्रकृति को इस प्रकार प्रकट करता है, वैसे भगवान् भी एक व्यक्ति, चिन्मय पुरुष है जो अपनी प्रकृति को हमारे सामने इस प्रकार प्रकट करता है । इस प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों द्वारा, सत्यस्वरूप ईश्वर, प्रेम एवं दयामय ईश्वर, शान्ति एवं पवित्रता का आगार ईश्वर--इन सब रूपों द्वारा हम उसकी उपासना कर सकते हैं । परन्तु प्रत्यक्ष है कि दिव्य प्रकृति में और भी चीजें हैं जो हुमने व्यक्तित्व के उस रूप के बाहर रख छोड़ी हैं जिसमें हम इस प्रकार उसकी पूजा कर रहे हैं । अविचल आध्यात्मिक दृष्टि और अनुभूति के साहस से सम्पन्न मनुष्य अधिक कठोर या भीषण रूपों में भी उसका साक्षात्कार कर सकता है । इनमेंसे कोई भी सम्पूर्ण देवत्व नहीं है; तो भी उसके व्यक्तित्व के ये रूप उसके वास्तविक सत्य हैं जिनमें वह हमसे मिलता तथा व्यवहार करता प्रतीत होता है, मानों शेष सब उसने अपने पीछे कहीं रख छोड़े हों । वह पृथक्-पृथक् हर एक रूप है और एक साथ सब कुछ है । वह विष्णु, कृष्ण, काली है; वह अपने-आपको ईसा के व्यक्तित्व या बुद्ध के व्यक्तित्व के मानवी रूप में हमारे सामने प्रकाशित करता है । जब हम अपनी प्राथमिक, एकांगी रूप से केन्द्रित दृष्टि के परे देखते हैं तो हम विष्णु के पीछे शिव का सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा शिव के पीछे विष्णु का सम्पूर्ण व्यक्तित्व देखते हैं । वह अनन्तगुण है तथा अनन्त दिव्य व्यक्तित्व है जो अपनेको इसके द्वारा प्रकट करता है । और फिर, ऐसा प्रतीत होता है कि वह शुद्ध आध्यात्मिक निर्गुणता में या निर्गुण आत्मा के विचारमात्र से भी परे लौट जाता है और आध्यात्मीकृत निरीश्वरवाद या अज्ञेयवाद का समर्थन करता है; वह मनुष्य के मन के लिये अनिर्देश्य बन जाता है । परन्तु इस अज्ञेय में से चिन्मय पुरुष, दिव्य व्यक्ति, जिसने अपनेको यहां प्रकट किया हुआ है, फिर भी पुकारकर कहता है, ''यह भी मैं हूं; मन के विचार से परे यहां भी मैं वही हूं पुरुषोत्तम रूप में वही हूं ।''
बुद्धि के विभागों और विरोधों से परे एक और प्रकाश है और वहां सत्य की दृष्टि अपनेको प्रकट करती है जिसे हम बौद्धिक तौर पर इस प्रकार अपने प्रति व्यक्त करने का यत्न कर सकते हैं । वहां इन सब सत्यों का बस एक ही सत्य है, क्योंकि वहां प्रत्येक सत्य विद्यमान है और शेष सबमें न्यायसंगत ठहरता है । इस प्रकाश में हमारा आध्यात्मिक अनुभव एकीभूत तथा सर्वांगसमन्वित हो जाता है; बालभर भी वास्तविक अन्तर बाकी नहीं रहता, निर्गुण की खोज तथा दिव्य व्यक्तित्व की उपासना में, ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्ग में ऊंच-नीच का लवलेश भी शेष नहीं रहता । ५९४ |